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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


नशा मुंशी प्रेम चंद
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ईश्‍वरी का घर क्‍या था, किला था। इमामबाड़े का—सा फाटक, द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ, नौकरों का कोई सिसाब नहीं, एक हाथी बॅंधा हुआ। ईश्‍वरी ने अपने पिता, चाचा, ताऊ आदि सबसे मेरा परिचय कराया और उसी अतिश्‍योक्ति के साथ। ऐसी हवा बॉंधी ‍िक कुछ न पूछिए। नौकर-चाकर ही नहीं, घर के लोग भी मेरा सम्‍मान करने लगे। देहात के जमींदार, लाखों का मुनाफा, मगर पुलिस कान्‍सटेबिल को अफसर समझने वाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे! जब जरा एकान्‍त हुआ, तौ मैंने ईश्‍वरी से कहा—तुम बड़े शैतान हो यार, मेरी मिट्टी क्‍यों पलीद कर रहे हो?
ईश्‍वरी ने दृढ़ मुस्‍कान के साथ कहा—इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी, वरना सीधे मुँह बोलते भी नहीं। जरा देर के बाद नाई हमारे पांव दबाने आया। कुंवर लोग स्‍टेशन से आये हैं, थक गए होंगे। ईश्‍वरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा—पहले कुंवर साहब के पांव दबा।
मैं चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पांव दबाए हों। मैं इसे अमीरों के चोचले, रईसों का गधापन और बड़े आदमियों की मुटमरदी और जाने क्‍या-क्‍या कहकर ईश्‍वरी का परिहास किया करता और आज मैं पोतड़ों का रईस बनने का स्‍वांग भर रहा था। इतने में दस बज गए। पुरानी सभ्‍यता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल पहाड़ की चोटी तक पहुंच पायी थी। अंदर से भोजन का बुलावा आया। हम स्‍नान करने चले। मैं हमेंशा अपनी धोती खुद छांट लिया करता हूँ; मगर यहाँ मैंने ईश्‍वरी की ही भांति अपनी धोती भी छोड़ दी। अपने हाथों अपनी धोती छांटते शर्म आ रही थी। अंदर भोजन करने चले। होस्‍टल में जूते पहले मेज पर जा डटते थे। यहाँ पॉंव धोना आवश्‍यक था। कहार पानी लिये खड़ा था। ईश्‍वरी ने पॉंव बढ़ा दिए। कहार ने उसके पॉंव धोए। मैंने भी पॉंव बढ़ा दिए। कहार ने मेरे पॉंव भी धोए। मेरा वह विचार न जाने कहाँ चला गया था।

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